Home लाइफस्टाइल Yoga : याेग से शारीरिक व मानसिक विकास, राेग प्रतिराेधक क्षमता बढ़ेगी

Yoga : याेग से शारीरिक व मानसिक विकास, राेग प्रतिराेधक क्षमता बढ़ेगी

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Yoga : महर्षि पतंजलि ने मानव जीवन के सर्वागीण विकास के लिए योग के आठ अंगों का प्रतिपादन किया, जो अष्टांग योग के नाम से लोकप्रिय है। जैसे यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। योग के अभ्यास से नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों से स्वास्थ्य संरक्षण तथा व्यक्ति की रोग-प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होता है। साधक अष्टांग योग के सभी बिंदुओं को पूर्ण अंगीकार किए बिना ही योगाभ्यास (आसन) करने लगते हैं। योगाभ्यास में रुचि रखने वाले सभी योगी साधक अष्टांग योग के पहले अंग यम के प्रथम बिंदु अहिंसा का अभ्यास करें।

 यम का अभ्यास मन की शुद्धि और धैर्य का मार्ग प्रशस्त करेगा और एकाग्रता बढ़ाएगा

 

1. अहिंसा : शब्दों, विचारों और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुंचाना। विचार करेेें, क्या हम अपने दैनिक जीवन में ऐसा कर पाते हैं और यदि जवाब नहीं है तो कृपया कर अभ्यास करें। जब तक हम स्टेप बाय स्टेप नहीं चलेंगे ताे योग का पूर्ण लाभ नही ले पाएंगे।

2. सत्य : विचारों में सत्यता, परम-सत्य में बने रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना। विचार करें, मनन करे क्या आप और हम ऐसा कर पाते हैं? यदि जवाब हां है तो हार्दिक बधाई। आप योग से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर हैं। यदि जवाब नहीं है तो भी कोई खास बात नहीं है। बस आप आज से ही सत्य का अभ्यास शुरू करें और अपने आचरण में इसे ढालने का पूर्ण प्रयास करें।

3. अस्तेय : यम के तृतीय बिंदु अस्तेय का अभ्यास करना चाहिए। अस्तेय का अर्थ है चोर प्रवृति का न होना। योग साधना वाले व्यक्ति की चोर प्रवृति नहीं होनी चाहिए। योग के मार्ग पर यदि हम आगे बढ़ना चाहते हैं, पूर्ण लाभ लेना चाहते हैं तो निश्चित ही हमें यम और नियम की पूर्ण पालना सुनिश्चित करनी ही होगी।

4. ब्रह्मचर्य : – दो अर्थ हैं! चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना अाैर सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना। इंद्रियां जब संयमपूर्वक कार्य करती हैं तो विषय का भोग करती हैं, लेकिन जब इंद्रियां असयमित होकर विषम का भोग करती हैं तो स्वयं भुगत जाती हैं अर्थात नष्ट हो जाती है, इसलिए हमें ब्रह्मचर्य/संयम को जीवन में महत्व देते हुए इसकी पालना सुनिश्चित करनी चाहिए।

5. अपरिग्रह : का अर्थ है आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना। जब भी हम सफर पर होते हैं तो बहुत आवश्यक सामग्री ही साथ में लेते हैं अाैर अनावश्यक सामग्री का संग्रह करने से बचते है। ये दुनिया भी एक सफर/ यात्रा से ज्यादा कुछ नहीं  है। लेकिन भ्रम और अज्ञानता के वशीभूत होकर मनुष्य इस सफर में अनावश्यक संग्रह की प्रवृति को अपनाता है। योगी साधकों को यम के अंतिम बिंदु अपरिग्रह की पालना करते हुए संसार की किसी भी भौतिक वस्तु का आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से बचने का अभ्यास करना चाहिए।

डाॅ. पवन शेखावत
वरिष्ठ आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी,  जिला आयुर्वेद चिकित्सालय अलवर

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