श्वेतांबर जैन संत गणि राजेन्द्र विजय जी महाराज का कहना है कि अहिंसा सर्वोत्तम मानवीय मूल्य तो है ही। यह समस्त मानवीय मूल्यों का मूलाधार भी है। अहिंसा के होने से असीम मूल्यवान बने रहते हैं। अहिंसा (Nonviolence) के न हीं होने से दूसरे सारे मूल्य भी मूल्यहीन होते चले जाते हैं। आज संसार में यही हो रहा है। अहिंसा की उपेक्षा से सारे मूल्य अपने अर्थहीन होते जा रहे हैं। मानव अधकारों की बातें भी स्थाई सुपरिणामदायी सिद्ध नहीं हो रही हैं। मानवता, मानवीयता और इनसे जुड़े मूल्यों की गरिमा में गिरावट समय की विकट और बड़ी त्रासदी है।
अहिंसा (Nonviolence 🙂 एक शाश्वत तत्व है। हिंसा ही विनास है और अहिंसा ही विकास है। हिंसा ही मृत्यु है, अहिंसा ही जीवन है। हिंसा ही नर्क है और अहिंसा ही स्वर्ग है। यदि हमें प्रगति एवं विकास के नए िशखर छूने हैं। जीवन की अनंत संभावनाओं को जिंदा रखना है, धरती पर स्वर्ग उतारना है तो अहिंसा धर्म को सर्वोपरि प्रतिष्ठा देनी ही होगी।
भगवान महावीर कितना सरल किन्तु सटीक कहते हैं- सुख सबको प्रिय है, दुःख अप्रिय। सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। हम जैसा व्यवहार स्वयं के प्रति चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति भी करें। यही मानवता है और मानवता का आधार भी। मानवता बचाने में है, मारने में नहीं। किसी भी मानव, पशु-पक्षी या प्राणी को मारना, काटना या प्रताड़ित करना स्पष्टतः अमानवीय है, क्रूरतापूर्ण है। हिंसा-हत्या और खून-खच्चर का मानवीय मूल्यों से कभी कोई सरोकार नहीं हो सकता। मूल्यों का सबंध तो ‘जियो और जीने दो’ जैसे सरल श्रेष्ठ उद्घोष से है।
मिटाकर अपना अस्तित्व बचाए रखने की कोशिशें व्यर्थ और अन्ततः घातक होती हैं। आचार्य श्री उमास्वाति की प्रसिद्ध सूक्ति है- ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ अर्थात सभी एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। पारस्परिक उपकार-अनुग्रह से ही जीवन गतिमान रहता है। समाज और सामाजिकता का विकास भी अहिंसा की इसी अवधारणा पर हुआ। इस प्रकार अहिंसा से सहयोग, सहकार, सहकारिता, समता और समन्वय जैसे उत्तम व उपयोगी मानवीय मूल्य जीवन्त होते हैं। केन्द्र से परिधि तक परिव्याप्त अहिंसा व्यक्ति से लेकर विश्व तक को आनन्द और अमृत प्रदान करती है।
दुनिया में मानवीय मूल्यों का ह्रास हो, मानवाधिकारों का हनन हो या अन्य समस्याएं। एक शब्द में ‘हिंसा’ प्रमुखतम और मूलभूत समस्या है अथवा समस्याओं का कारण है। और समस्त समस्याओं का समाधान भी एक ही है, वह है- अहिंसा। अहिंसा व्यक्ति में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की विराट भावना का संचार करती है। मनुष्य जाति युद्ध, हिंसा और हत्या के भयंकर दुष्परिणाम भोग चुकी है, भोग रही है और किसी भी तरह के खतरे का भय हमेशा बना हुआ है। मनुष्य, मनुष्यता और दुनिया को बचाने के लिए अहिंसा से बढ़कर कोई उपाय आश्रय नहीं हो सकता।
यह स्पष्ट है कि हिंसा मनुष्यता के भव्य प्रासाद को नींव से हिला देती है। मनुष्य जब दूसरे को मारता है तो स्वयं को ही मारता है, स्वयं की श्रेष्ठताओं को समाप्त करता है। इस बात को भगवान महावीर ने ‘आचारांग-सूत्र’ में बहुत मार्मिक और सूक्ष्म ढंग से बताया है- “जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है।” यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है। एक हिंसा, हिंसा के अन्तहीन दुश्चक्र को गतिमान करती है। अहिंसा सबको अभय प्रदान करती है। वह सर्जनात्मक और समृद्धिदायिनी है। मानवता का जन्म अहिंसा के गर्भ से हुआ। सारे मानवीय मूल्य अहिंसा की आबोहवा में पल्लवित, विकसित होते हैं एवं जिन्दा रहते हैं। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु (ऑक्सीजन) है। प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, पानी और प्राणीमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है।

मानव ने ज्ञान-विज्ञान में आश्चर्यजनक प्रगति की है। परन्तु अपने और औरों के जीवन के प्रति सम्मान में कमी आई है। विचार क्रान्तियां बहुत हुई, किन्तु आचार-स्तर पर क्रान्तिकारी परिवर्तन कम हुए। शान्ति, अहिंसा और मानवाधिकारों की बातें संसार में बहुत हो रही हैं, किन्तु सम्यक्-आचरण का अभाव अखरता है। इस सन्दर्भ में ‘सूत्रकृतांग-सूत्र’ की यह बात मुझे बहुत मार्मिक व मूल्यवान लगती है-
एवं खु नाणिणों सारं जं न हिंसई किंचण।
अहिंसा और समय बहुत महत्वपूर्ण हैं।
अर्थात् ज्ञानी-विज्ञानी होने का सार यही है कि किसी की हिंसा न करें। अहिंसा मूलक समता ही धर्म का सार है। बस, इतनी-सी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। आचार-विचार, आहार-संस्कार और जीवन-व्यवहार में अहिंसा के आ जाने से मानवता का उपवन सद्गुणों के असंख्य रंग-बिरंगे सुमनों से खिल उठेगा। इसके विपरीत अहिंसा की उपेक्षा से सब कुछ बिगड़ता और उजड़ता चला जाएगा। मानव सभ्यता और संस्कृति की बुनियाद अहिंसा को उपेक्षित नहीं करना चाहिए। अहिंसा एकता, प्रेम और भाईचारे का सन्देश देती है।
मानवीय-एकता और मानवीय प्रेम भी हिंसा से खतरे में पड़ गया है। सब जानते हैं कि मानव-धर्म सर्वोपरि है। किन्तु उस मानव-धर्म का अर्थ और परिभाषा क्या है? मानव-धर्म कैसा होना चाहिए? स्पष्टतः अहिंसामूलक होना चाहिए। महाभारत में अहिंसा को परम और पूर्ण धर्म कहा है। अहिंसा-धर्म मानव-धर्म है और मानव-धर्म हैं- अहिंसा। अहिंसा से ओत-प्रोत जीवन-शैली मानव-धर्म है। इससे मानव-धर्म में सहज ही प्राणी-मात्र का समावेश हो जाता है। आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी का अहिंसा दर्शन स्पष्ट है।
उन्होंने कहा है धर्म की दृष्टि में अहिंसा की उपयोगिता है। संसार की दृष्टि में हिंसा की भी उपयोगिता हो सकती है। पर यदि धर्म में हिंसा और अहिंसा की मिलावट हो जाती है तो वह अपना महत्व खो देता है। संसार को संसार की तरह से जीना पड़ता है पर उसके लिए कसौटी को तो गलत नहीं बताया जा सकता है। हर व्यक्ति के लिए धर्म की इस विशुद्ध कसौटी को समझना जरूरी है। गुरु

वल्लभ अहिंसा के सर्वाधिक प्रभावशाली व्याख्याता थे- यही कारण है कि उन्होंने कहा कि जितने दुःख हैं वे सब हिंसा से उत्पन्न हैं। आव हम गुरु वल्लभ के अहिंसा दर्शन को अपनाकर चलें तो जीवन को अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। वल्लभ वाणी में कहा गया है कि अहिंसा हमारे जीवन और जगत के संतुलन को बनाये रखती है, हमारे प्रमाद से बने असंतुलन का पुनःसंतुलन और लय में स्थापित करती है, हमें प्रलय और विनाश से बचाती है। यदि हम अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाते हैं तब प्रकृति अपना काम करती है। इसलिए महाविनाश या महानिर्माण के लिए जिम्मेदार हम हैं, दूसरा कोई नहीं। प्रकृति भी नहीं।
गुरु वल्लभ और गुरु इन्द्र के अहिंसक विचारों को आगे बढ़ाने की दृष्टि से और लोकजीवन में अहिंसा को प्रतिष्ठित करने के लिए ही सुखी परिवार अभियान का शुभारंभ किया गया है। प्रश्न उपस्थित हुआ कि अहिंसा के प्रशिक्षक कौन होंगे? इस प्रश्न के समाधान में व्यक्ति और परिवार आधारस्तंभ नजर आए। इन दोनों को ही आधार बनाकर ही सुखी परिवार अभियान शुरू किया गया जिसका लक्ष्य है ऐसे व्यक्तियों की खोज जो अहिंसानिष्ठ है या ऐसे व्यक्ति तैयार करना जिनमें अहिंसक बनने की क्षमता है।
जैसे महात्मा गांधी के पास जाने वाले और रहने वाले व्यक्तियों का अनायास ही उनके जीवन में अहिंसा की झलक मिल जाती है। गांधीजी को पढ़ने वाले जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में अहिंसा को कितने निष्ठा के साथ जिया था। आज उसी निष्ठा के साथ अहिंसा के साथ जीने वाले लोगों की जरूरत है। तभी हिंसा, आतंकवाद, नक्सलवाद एवं सांप्रदायिक विद्वेष से मुक्ति मिल सकती है। वस्तुतः प्रेम, सेवा, त्याग, सत्य, क्षमा, बन्धुता आदि मानवीय सद्गुण अहिंसा की निष्पत्तियां हैं। अहिंसा से आत्मौपम्य दृष्टि का विकास होता है। दूसरों के कष्ट अपने लगने लगते हैं। अहिंसा का साधक पर के कष्ट-निवारण के लिए सेवा को तत्पर हो जाता है। जहां सेवा है वहां त्याग भी स्वतः फलित होगा। स्वयं के प्रति कठोर और
दूसरों के प्रति नम्रता अहिंसा की दृष्टि है। अहिंसक अपने निमित्त से
दूसरों को पीड़ित परेशान नहीं करेगा, अलबत्ता दूसरों की पीड़ाएं दूर करने का प्रयास करेगा। अहिंसा का साधक अपने सुख में सबको भागीदार बनाकर सुखों में वृद्धि और सुखों की सृष्टि करता है।
विश्व के समस्त धर्मों, धर्माचार्यों, धर्मग्रन्थों, महापुरुषों और विचारकों ने अहिंसा को सबके लिए कल्याणकारी माना है। मानवीय मूल्यों में अहिंसा सर्वोपरि है। अहिंसा की स्थापना के लिए जरूरी है कि अनेकता के ऊपर एकता की प्रतिष्ठा हो। तभी हम धर्म और राष्ट्र की सार्वभौमिकता को बचा सकेंगे। धर्म के बचने पर ही राष्ट्र बचेगा, राष्ट्र के बचने पर ही समाज बचेगा और समाज के बचने पर ही व्यक्ति बचेगा।