Ayurveda Article-2
स्वास्थ्य रक्षा की आयुर्वेद विधि
शारिरिक स्वास्थ्य- दिनचर्या, ऋतुचर्या, रात्रिचर्या, आहार- विहार,योग-आसान, प्राणायाम इत्यादि।
मानसिक स्वास्थ्य-दुर्व्यसनों/ दुर्गुणों से मुक्ति, सदवृत इत्यादि का पालन।
सामाजिक स्वास्थ्य- शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध आहार, स्वच्छता, इत्यादि।
आयुर्वेद जीवनशैली अपनाए, स्वस्थ दीर्घायु जीवन पाए
आधुनिक जीवनशैली जहाँ अनेक रोगों को जन्म देने वाली सिद्ध हो रही है, वही आयुर्वेद जीवनशैली अपनाने से मनुष्य शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से पूर्ण स्वस्थ रहता है तथा मनुष्य के शारीरिक एवं बौद्विक स्तर में भी अभूतपूर्व वृद्धि होती है।
आयुर्वेद दिनचर्या
आइए जानते हैं की आयुर्वेद के अनुसार हमारी दिनचर्या कैसी रहे ताकि हम एक स्वस्थ्य और अर्थपूर्ण जीवन जी सकें, हमारे पूर्वज एवं ऋषि मुनि आयुर्वेद के अनुसार अपनी दिनचर्या का पालन करते थे और सैकड़ों साल बिना किसी बीमारी की चपेट में आये जीते थे, आइये उन ख़ास नियमों के बारे में चर्चा करते है।
दिनचर्या आदर्श दैनिक कार्यक्रम है जो प्रकृति के चक्र का ध्यान रखती है। आयुर्वेद प्रातः काल के समय पर केंद्रित होता है क्योंकि वह पूरे दिन को नियमित करने में महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद यह मानता है कि दिनचर्या शरीर और मन का अनुशासन है और सरल स्वस्थ दिनचर्या से शरीर और मन शुद्ध होते हैं, दोष संतुलित होते हैं, प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होता है और दिन की शरुआत ताज़गी और पुनार्युवन से होती है। प्रातः काल में सरल दिनचर्या का पालन करने से आप की दिन की शुरुआत आनंदमय होती है। आपकी सुबह ताज़गीमय होने के लिये यह मार्गदर्शिका है।
दिनचर्या शब्द ( दिन + चर्या) दो शब्दों से मिलकर बना है। दिन का अर्थ है दिवस तथा चर्या का अर्थ है। चरण अथवा आचरण से हैं। अर्थात् प्रतिदिन की चर्या को दिनचर्या कहते हैं। दिनचर्या एक आदर्श समय सारणी है जो प्रकृति की क्रमबद्धता को अपनाती है, तथा उसी का अनुसरण करने का निर्देश देती है।
आयुर्वेद शास्त्र में वर्णन मिलता है कि – हमें पूर्ण रूप से स्वस्थ रहने के लिए प्राकृतिक क्रम के अनुसार अपने शारीरिक कार्यो के क्रम को व्यवस्थित करना चाहिए। जिससे अन्य सभी क्रम स्वत: ही व्यवस्थित हो जाएंगे। आयुर्वेद के ग्रन्थों में दिनचर्या का प्रतिपादन मुख्य रूप से स्वास्थ्य रक्षण हेतु किया गया है।
दिनचर्या नित्य कर्मो की एक क्रमबद्ध श्रंखला है। जिसका हर एक अंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है और क्रमवार किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नितिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र के ग्रन्थों से लिए जाते हैं। परन्तु मुख्यत: आयुर्वेदोक्त हैं।
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ब्रह्ममुहूर्त में जागरण
- स्वस्थ पुरुष को ब्राह्ममुहूर्त में सूर्योदय से पूर्व प्रातःकाल 4 से 6 के मध्य उठना चाहिए। तत्पश्चात चित्त एकाग्र करके इष्ट देवता का स्मरण-चिंतन करना चाहिए। ब्रह्म अर्थात् ईश्वर प्राप्तर्थ साधना एवं अध्यन के लिए यह समय अनुकूल होने के कारण इसे ब्रह्ममुहूर्त कहा जाता है।प्रातःकाल को अमृतवेला कहा गया है।शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, विपुल प्रकाश एवं विपुल आकाश ये ही प्रकृति के पंचामृत है।प्रातःकाल ही स्वच्छ एवं प्रदूषण रहित अवस्था मे ये पांचों मिल सकते है।इस प्रातःकालीन पंचामृत को त्यागने वाले लोग आरोग्यवान, भाग्यवान तथा ज्ञानवान नही हो सकते है।
2. उषःपान
- प्रातःकाल ऋतु एवं प्रकृति अनुसार पानी का सेवन करने से शरीर से विषैले पदार्थ बाहर निकलते है, पाचन तंत्र नियमित रहता है। ताम्र पात्र में पानी का सेवन हितकर कहा गया है।
3. शौचविधिः
- मल-मूत्र का वेग आने स्वाभाविक उत्सर्ग करें। बिना वेग के अनावश्यक यत्न द्वारा मल-मूत्रोत्सर्ग नहीं करना चाहिए। इससे वायु प्रकुपित होता है। मल-मूत्र के वेग को रोकने से पिंडलियों में ऐंठन, प्रतिश्याय, शिर में वेदना, अपनावायु विपरीत गामी होकर शरीर मे वेदना उतपन्न कर सकती है। प्रयत्नपूर्वक मलोत्सर्ग करने पर अर्श/ पाईल्स रोग हो जाता है।
3. दंतधावन- जिह्वा निर्लेखन
- दंतधावन के लिए 25 सें.मी. लम्बी, कनिष्ठिका उँगली के बराबर मोटी, सीधी, हरी लकड़ी का दातौन बनायें। दातौन के लिए कषाय रस में खदिर एवं बबूल, तिक्त रस में नीम तथा कटु रस में करंज श्रेष्ठ होता है। इन वृक्षो में ऐसे क्षारीय तत्व एवं तैल होते है जो दांतो को मजबूती प्रदान करने वाले, कृमिनाशक, व्रणरोपक एवं रक्तशोधक होते है। लकड़ी चबाकर उसकी कुर्विका बनाकर दाँत साफ करें।
- दातौन के अतिरिक्त दंतमंजन का भी उपयोग किया जा सकता है।- इसके लिए सोंठ, काली मिर्च, पीपर, हरड़, बहेड़ा, आँवला, दालचीनी, तेजपत्र तथा इलायची के समभाग चूर्ण में थोड़ा-सा सेंधा नमक तथा तिल का तेल मिलाकर ‘दंतशोधक पेस्ट’ बनायें। कोमल कुर्विका से अथवा प्रथम उँगली से मसूड़ों को नुकसान पहुँचाये बिना दाँतों पर घिसें।
- इससे मुख की दुर्गन्ध, मैल तथा कफ निकल जाते हैं एवं मुख में निर्मलता, अन्न में रूचि तथा मन में प्रसन्नता आती है। दिन में दो बार दंतधावन करें। भोजन के बाद तथा किसी भी खाद्य-पेय पदार्थ के सेवन के बाद दाँतों व जिह्वा की सफाई अवश्य करनी चाहिए। आजकल मार्केट में जीह्वा- निर्लेखन (Tongue Scraper) प्लास्टिक/ विभिन्न धातुओं के उपलब्ध होते है।
4. कवल-गण्डूष
खदिर, क्षीरिवृक्ष तथा अरिमेद के छाल के हिम कषाय का कवल धारण करना चाहिए। कवल से अरुचि, दुर्गंध, लालस्राव निकलना बंद होता है।द्रव्यों को मुख में भरकर कुछ समय रखकर निकाल देने को गण्डूष धारण करना कहते हैं। त्रिफला चूर्ण रात को पानी में भिगो दें।
सुबह छानकर इस पानी से कुल्ला करें। दंतधावन के बाद गण्डूष धारण करने से अरूचि, दुर्गन्ध, मसूड़ों की कमजोरी दूर होती है। मुँह में हलकापन आता है। गुनगुने तिल तेल से गण्डूष धारण करने से स्वर स्निग्ध होता है। दाँत व मसूड़े वृद्धावस्था तक मजबूत बने रहते हैं। वृद्धावस्था में भी दाँत देर से गिरते हैं। स्नेह गन्डूष (तिल/ नारियल तैल) एवं उष्ण जल से गन्डूष करना चाहिए। स्नेह गन्डूष से होठों का फटना, मुख का सुखना, दांतो का रोग तथा स्वस्भेद नही होता है।
5. मुख एवं नेत्र प्रक्षालन
आंवला एवं लोध्र छाल के कषाय अथवा शीतल जल से मुख का नित्य प्रक्षालन करना चाहिए, ऐसा करने से मुख पर (छाया) झाइयां, फोड़े-फुन्सी इत्यादि रक्तपितजनित व्याधियां नही होती है , चेहरे पर झुर्रियां नही पड़ती है तथा दीर्घायु तक चेहरा कांतिमय बना रहता है।
ठंडे पानी से अथवा त्रिफला चूर्ण रात को पानी में भिगोकर, सुबह कपड़े से छानकर उस पानी से नेत्र धोने चाहिए। दिन में 2-3 बार नेत्र प्रक्षालन आँखों के लिए अत्यन्त हितकारी है। इससे प्रायः नेत्र विकार नही होते है एवं दृष्टि सामान्य बनी रहती है।
6. अंजनविधि
इसके उपरांत आँखों में ‘अंजन’ लगाना चाहिए नेत्र् प्रक्षालन तथा अंजन प्रयोग से मनुष्य दीर्घकाल तक बिना कष्ट के सुखपूर्वक सूक्ष्म वस्तुओं को भी देख सकता है। सौवीरञ्जन नेत्र को स्वच्छ रखने वाला होता है इसका प्रयोग नित्य करें। नेत्र अग्नितत्त्व प्रधान है अतः इसे जलतत्त्व प्रधान श्लेष्मा से विकृत होने का भय रहता है, इसलिए श्लेष्मा के स्रावनार्थ सप्ताह में एक बार रसाञ्जन(रसौत)का प्रयोग करना चाहिए। रसाञ्जन का प्रयोग रात्रि में सोते समय ही करें।
7. नस्यः
अंजन के बाद नस्य कर्म करना चाहिए। इसमें नाक में औषधि द्रव्य की बूँदे डाली जाती हैं। इसके लिए अणुतैल का उपयोग श्रेष्ठ है। अणुतैल न हो शुद्ध तिल तेल का भी उपयोग किया जा सकता है। यह तेल गुनगुना करके 2-2 बूँद दोनों नथुनों में डालें। नस्य के लिए प्रातःकाल का समय उत्तम है
नस्य क्रिया करने से त्वचा दृढ़ तथा कान्तियुक्त होती है। कपाल, सिर के संधिस्थान व स्नायु सशक्त हो जाते हैं। मुख प्रसन्न, आवाज स्निग्ध व गंभीर होती है। समय से पूर्व बाल झड़ते नही है और न ही बाल सफेद होते है। सभी इन्द्रियाँ निर्मल व अत्यधिक सबल हो जाती हैं।
8.अभ्यंग (मालिश)
नित्य विधिपूर्वक अभ्यंग दिनचर्या का अंग होना चाहिए। इससे वातदोष का शमन होता है। शरीर पुष्ट होता है, नींद अच्छी आती है, शारीरिक तथा मानसिक श्रम से उत्पन्न थकान दूर होती है, वार्धक्य के लक्षण जल्दी उत्पन्न नहीं होते। अभ्यंग त्वचा के लिए अत्यन्त हितकारी है। इससे त्वचा दृढ़ तथा मुलायम होती है। अगर सर्वांग अभ्यंग असंभव हो तो सिर, कान तथा पैरों में अवश्य करना चाहिए। अभ्यंग के लिए तिल का तेल उत्तम है। औषध सिद्ध तेलों का उपयोग विशेष लाभदायी है।
शिरोभ्यंगः-सिर पर मालिश करने के लिए ठंडे तेल का उपयोग करें। ब्राह्मी, आँवला, भांगरा, जटामांसी आदि से सिद्ध तिल तेल का उपयोग उत्तम है। इससे बाल मजबूत, करने, घने तथा लम्बे होते हैं। मस्तिष्क में स्थित ज्ञानेन्द्रियों के केन्द्रस्थानों का पोषण होता है। सिर की तृप्ति तथा मुख की त्वचा सुन्दर होती है।
पादाभ्यंगः पैरों में घी या तेल की मालिश करने से थकावट तुरंत दूर हो जाती है, नेत्रों को आराम मिलता है और नेत्रज्योति बढ़ती है। पैरों की रूक्षता, सुप्ति (सुन्नता), व्रण, बिवाई नष्ट होकर पैरों की त्वचा कोमल हो जाती है।
9. व्यायाम-सूर्य नमस्कार, ऐरोबिक्स
योग या दैनिक व्यायाम से शारीरिक सामर्थ्य ओर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। सरीर के समस्त स्रोतस की शुद्धि होती है। रक्त संचार बढ़ता है, अवशिष्ट पदार्थ स्वेद/पसीना के माध्यम से शरीर से बाहर निकलते है। अतिरिक्त चर्बी घटती है। शीत एवं बसंत ऋतु में अर्द्धशक्ति भर तथा ग्रीष्म, वर्षा एवं शरद ऋतु में स्वल्प व्यायाम करना चाहिए। व्यायाम करने से शरीर मे लघुता, कार्य करने की क्षमता तथा जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
10. क्षोरकर्म
समय समय पर बाल कटवाने, नाखून काटना इत्यादि करना चाहिए इससे स्वच्छता रहती है और संक्रमण का भय नही रहता है।
11. उद्वर्तन
चूर्ण या कल्क (lotion) से लेप या उबटन करना उद्वर्तन कहलाता है।इससे शरीर की दुर्गंध दूर होती है, मन प्रसन्न रहता है, स्फूर्ति रहती है, शरीर की अतिरिक्त वसा नष्ट होती है। रोमकूप खुलते है। इससे मेदोधातु का विलयन, अंग- प्रत्यंगों को स्थिर तथा त्वचा को सुंदर बनाता है।
स्नान से पहले इनका उपयोग लाभकारी होता है।उबटन के सरसों का चूर्ण, दूध, बेसन, तिल तैल, दही की मलाई, आंवले की पिट्ठी इत्यादि उपयोग किये जाते है, असजकल हम इनके स्थान पर विभिन्न प्रकार के बॉडी लोशन का उपयोग करते है।
12. स्नान
दैनिक स्वस्थस्य के लिए अत्यावश्यक है।स्न्नान से शरीर शुद्ध होता है, नींद गहरी होती है। शरीर से अतिरिक्त ऊष्मा, दुर्गंध, पसीना, खुजली, प्यास को दूर करता है।
13. निर्मल वस्त्र धारण
ऋतु अनुसार स्वच्छ, आरामदायक वस्त्र धारण करने से सुंदरता, प्रसन्नता, आत्मविश्वास की वृद्धि होती है।
14. भोजन
भोजन को नमस्कार करके, पवित्र होकर ,प्रसन्न होकर , एकांत में भोजन करना चाहिए। आहार की शुद्धि से सत्व की शुद्धि ओर सत्व की शुद्धि से बुद्धि निर्मल तथा निश्चयी होती है।
15. धूप-धूल
धूप-धूल आदि से बचाव रखना चाहिए।
16. रात्रि चर्या
सायंकाल लघु एवं हितकारी भोजन करके , ईश्वर का स्मरण करके सोना चाहिए। इससे अच्छी निंद्रा होती है।
दिनचर्या की आवश्यकता
साधारण शब्दों में जीवन जीने की कला ही आयुर्वेद है। क्योंकि यह विज्ञान जीवन जीने के लिए आवश्यक सभी प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति कराता है। तथा साथ ही साथ रोगों तथा उनकी चिकित्सा का निराकरण भी कराता है। इस प्रकार आयुर्वेद एक इस प्रकार की चिकित्सा प्रणाली है, जो स्वास्थ्य और रोग दोनों के लिए क्रमश: ज्ञान प्रदान करता है। आयुर्वेद का मुख्य उद्देश्य स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का रक्षण करना तथा रोगी व्यक्ति के विकारों का प्रशमन करना है। जैसा कि कहा गया है –
‘‘दोष धातु मल मूलं हि शरीरम्।’’ (सु0 सू0 15/3)
अर्थात् शरीर में दोष, धातु, मल की स्थिति पर ही स्वास्थ्य का बनना और बिगड़ना निर्भर करता है। शरीर में दोषों का दूषित होना हमारे आहार – विहार पर निर्भर करता है। दोष मनुष्य के गलत आहार – विहार के कारण दूषित होते है, जब ये दूषित होते है तो धातुओं को दूषित करते है। इस प्रकार किसी एक दोष की वृद्धि या क्षय की स्थिति उत्पन्न होती है। जिससे रोग उत्पन्न होते है।
इन दोषों की साम्यावस्था बनाये रखने के लिए आयुर्वेद में दिनचर्या और रात्रिचर्या तथा ऋतुचर्या के अनुसार आहार – विहार का वर्णन किया गया है। जिसे आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त कहा गया है। दिनचर्या दिन में सेवन करने योग्य आहार – विहार का क्रम है। दिनचर्या के पालनीय नियमों को अपनाने से उसके अनुसार आचरण करने से स्वास्थ्य की रक्षा होती है, और रोगों के आक्रमण से भी बचा जा सकता है। अत: रोगों से रक्षा तथा पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतु ही दिनचर्या की आवश्यकता है।
दिनचर्या का महत्व
सम्भावित रोगों से पूर्व सुरक्षा
दिनचर्या के पालन से सम्भावित रोगों को होने से पूर्व ही रोका जा सकता है। क्योंकि दिनचर्या के पालनीय नियमों से जीवनी शक्ति ( रोग-प्रतिरोधक क्षमता) प्रबल रहती है। अत: रोग होने की संभावना कम हो जाती है।
समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति
दिनचर्या के नियमित पालन से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, पारिवारिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। क्योंकि रोग का प्रभाव केवल व्यक्तिगत नहीं होता है। रोग का प्रभाव सामाजिक व पारिवारिक स्थितियों पर पड़ता है। अत: दिनचर्या के पालन से स्वस्थ समाज का निर्माण होता है तथा शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
व्यक्तित्व परिश्कार
दिनचर्या के पालनीय नियमों में नित्य कर्मो की एक क्रमबद्ध श्रृखला है। जिसका हर एक अंग महत्वपूर्ण है। जिसके पालन से मन, शरीर, इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित होता है। जिससे कि व्यक्तित्व परिश्कृृत होता है।
प्राचीन परम्परा का संरक्षण
आयुर्वेद में स्वस्थ वृत्त के अन्तर्गत दिनचर्या का वर्णन किया गया है। दिनचर्या के पालनीय नियमों से प्राचीन परम्परा हमारे ऋषि – मुनियों द्वारा बनायी गयी परम्परा का संरक्षण होता है। मानवीय मूल्यों का संरक्षण होता है। इन नियमों का पालन कर हमारी वर्षो पुरानी संस्कृति का संरक्षण होता है।
डॉ. पवन सिंह शेखावत
आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी
जिला आयुर्वेद चिकित्सालय
बुद्ध विहार, अलवर।
संपर्क-9667851624